Jonsar


The Jaunsar Bawar region, is a tribal valley, spread over 1002 sq km and 400 villages,[1], between 77.45' and 78.7'20" East to 30.31' and 31.3'3" North[2]. It is defined in the east, by the river Yamuna and by river Tons in the west, the northern part comprises Uttarkashi district, and some parts of Himachal Pradesh, the Dehradun tehsil forms its southern जौनसार बावर उत्तराखंड की पहाड़ियों में बसा एक ख़ूबसूरत क्षेत्र जो कि ना केवल अपनी ख़ूबसूरती बल्कि अपनी प्राचीन परम्पराओं के लिए भी जाना जाता है। मसूरी से ८५ किलोमीटर की दूरी पर बस यह क्षेत्र उस भौगोलिकता को सम्बोधित करता है जहाँ जौनसारी जनजाति बसी है तथा यह लोग मूलरूप से महाभारत के पाण्डवो व राजस्थान के राजपूतों से उत्पत है। सन १८२९ में जौनसार बावर को चकराता तहसील में जोड़ा गया जो की पंजाब राज्य के सिमुर क्षेत्र का भाग है। सन १८१४ में गौरखो व ब्रिटिशो में हुए युद्ध के पश्चात ब्रिटिशो द्वारा इस क्षेत्र को जीत कर देहरादून जिले के साथ सम्मलित कर दिया गया।


१. देविदेवता से सम्बंधित पौराणीक इतिहास : जौनसार बावर के लोगों का मानना यह है की जब द्वापर युग में पाण्डवो को एक वर्ष का गुप्त करवास दिया गया था उस गुप्त करवास में जौनसार में राज्य कर रहे राजा विराट ने पाण्डवो को अपने क्षेत्र में शरण दी थी। जिसके पश्चात इस क्षेत्र में वर्षों वर्षों से पाण्डवो की पूजा की जाती रही है । जिसके कारणवस जौनसार बावर के लोग ख़ुद को पाण्डवो के उपासक मानते आ रहे है। वही माहसु देवता इनके इस्ट देवता के रूप में पूजे जाते है। माहसु देवता भगवान शिवजी
के ही अनेक रूपों में से एक है। माहसु देवता के मंदिर जौनसार बावर के १०- १५ गाँव बीच एक एक मंदिर बनाए गए है।
२. ज्योतिष विद्या : जौनसार बावर के एकमात्र ग्रंथ में ही सारी ज्योतिष विद्या समलित्त है। इसके अलावा इसमें तंत्र, मंत्र व यंत्र का भी समावेश किया गया है। इस लेख को काली स्याही से हाथो से लिखा जाता है ।

३. लिपी : जौनसार लिपी हिंदी, शुद्ध जौनसारी व संस्कृति का मेल है ऐसी भी मान्यता है की माहसु देवता के साथ ही यह लिपी भी जौनसार बावर में प्रचलित हुई ।

४. जातीय आधार : जातीय आधार पर यह भूभाग दो वर्गों में बाँटा गया है। यहाँ के निचले भाग प्रमुख जौनसारी जनजातिया व ऊपरी हिमाछिद्रित भाग बावर के नाम से जाना जाता है। यहाँ के लोगों का विभाजन जातियरूप से तीन वर्गों में हुआ है। ब्राह्मण जाती , राजपूत जाती व दलित ज़ाती ।

५. विवाह विधी : प्राचीन समय में जौनसार बावर के लोगों के समाज में विवाह के विषय में अलग परम्परा रही है। यहाँ बारात कन्यापक्ष से वर पक्ष के घर जाती थी। वही समाज के अलग अलग वर्गों व तक़्ते के लोगों का भी विवाह संस्कार करने का अपना ढंग हुआ करता था । यह वर्ग ३ तक़्तो में बँटा हुआ करता था।

॰ संपन्नहिन वर्ग जिसे की स्थानीय लोगों द्वारा ” बेवा विवाह ” कहाँ जाता है।

॰ मध्यवर्गीय लोगों द्वारा किए जाने वाले विवाह को ” ब्योयदयोलि विवाह ” कहा जाता है ।

॰ उच्चववर्गीय लोगों द्वारा किया जाने वाले विवाह को ” ब्यादय विवाह ” कहाँ जाता है ।

६. लोकवाद्य : ढोल, दमों व रणसिंघा जौनसार बावर के मुख्य लोकवाद्य यंत्र है। यह वाद्य हर त्योहारों व विवाह, संस्करो में बजाए जाते है। इन्हें बजाने वालों को बाज़गी कहा जाता है।

७. लोकनृत्य : यहाँ का महत्वपूर्ण सांस्कृतिक नृत्य बोरड़ा नती, हेरुल, राशो है। जो कि प्रत्येक त्योहारों व शुभकार्यों पर किया जाता है माघमेला को यह का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है।

८. वेशभूषा : पारम्परिक त्योहारों के दौरान स्थानीय लोगों द्वारा ठालक, लोहिया पहना जाता है जो कि लम्बा कोट हुआ करता है। इन्ही वेशभूषा को पहन कर ही स्त्री व पुरुष एकत्र हो कर नृत्य करते है

९. फ़सलें : यहाँ की मुख्य फ़सलें कौदा, कोणी, झंगुरु, चेड़ी इत्यादि है।

१०. त्योहार : प्राचीन समय से इन प्रजातियों द्वारा वर्ष भर में केवल गिने चुने ही त्योहार मनाए जाते है। जिनकी अपनी ही एक विंशेषता होती है सम्पूर्ण भारत में मनाई जाने वाली दीपावली के ठीक १ महीने बाद जौनसार बावर में दीपावली मनाई जाती है। जिसमें गाँववालों द्वारा एकत्रित होकर पारम्परिक रूप से एतिहासिक गीत गाए जाते है व नृत्य किया जाता है। इस गीत को ‘ हरोल’ कहा जाता है। इस गीत द्वारा राजा महरजाओ व पाण्डवो के पराक्रम का व्याख्यान किया जाता है।

॰ विश्वमेला मेला एक भव्य मेले के रूप में मनाया जाता है जो की बैशाखी से सुरु हो कर ४ से ५ दिनो तक आयोजित होता है।

॰ जागडा हरी तालिका तीज के दिन से मनाया जाता है।

॰ दशहरा इसे स्थानीय लोगों द्वारा ‘ पाचव ‘ भी कहा जाता है। यह त्योहार भी ४ से ५ दिनो तक मनाया जाता है। बसंतपंचमी/ संक्रान्ति में गाँव के स्थानीय लोगों द्वारा भिन्न भिन्न पारम्परिक भोजन बनाए जाते है।
इस प्रकार आज भी यह क्षेत्र अपनी निशब्द ख़ूबसूरती के साथ ही साथ अपनी एतिहासिक व पारम्परिक रीति- रिवाजों व सभ्यताओं के लिए आज भी पूरे उत्तराखंड में प्रचलित है।


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